The Jamia Review

आज उठा लो मुझे मेरे पुस्तकालय से

Syed Farooq Jamal

Syed Farooq Jamal

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आज उठा लो मुझे मेरे पुस्तकालय से

आज उठा लो मुझे
मेरे पुस्तकालय से
ले चलो उस अग्रिम तख़्त पे
जहाँ से केवल नीचे
धकेल दिया जाता है।

हाथ बाँध देना
आँखें धुंधला देना
शब्द बिफरा, बयान पलट देना
पैरों तले की ज़मीन खींच लेना

मुँह काला कर, नया नवेला
मुजरिम घोषित कर,
चैनलों पे तस्वीर घुमा देना
हाथों में बन्दूक दिखा,
जम्हूरियती ज़ंजीर गुमा देना
इस प्रतापी ढोंग की पराकाष्ठा
हर पेरोल पे एंकर फिर चींखा
“किसी संगठन से है हस्ती मेरी”
तुलना बिठा देना.
किसी बेरोज़गार का गुस्सा
किसी ‘भक्तीयार’ की व्यथा
करोड़ों की समस्या,
मुझ पे गिरा देना। मेरा, थूकदान,
शर्म ऐ मकान बना देना।

तुम चैन से रहना भाई
सभी को बरगलाते रहना
मेरे जैसे और कई हैं
उन्हें भी शौक कई हैं
बिलकुल नरमी न बरतना
ठोंकते पीटते रहना
मरम्मत करते रहना
खिलाफत की बू आते ही सर खोलते रहना
खून है पानी थोड़ी है, बहाते रहना।
सुना है खून के निशाँ फिनायल इनायल से बमुश्किल मिटते हैं
फिर भी है की सरकारी दस्तावेज इसमें रंग जाएं?
-मुश्किल है,
जो ‘ठीक’ किये गए वो संग जाएं, फिर बिगड़ने।

तुम लेकिन चैन से रहना भाई
सभी को बरगलाते रहना
संविधान की नई अफीम
सबको सुंघाते रहना
जो जाहिल हैं पूरे जानवर हैं
डीटेन ना, इन्हे इंसान बनाते रहना।

तुम चैन से सोना मोटाभाई
हमारी लाशों पे मदमस्त गुदगुदाना
जो बची कुछी चीखें मारें
टेबल ठोकना, तुम हड़क जाना
हर स्वप्नशील आँख को सुजा जाना.

तुम चैन से रहना भाई.

आज उठा लो मुझे
मेरे पुस्तकालय से
इस शहर-ऐ-यार से,
शांत बाजार से।

जीवन कहाँ अनमोल है सबका?
कुछ मोल लगाओ संस्कार से
कुछ पेट्रोल छिरको बदन पे
कुछ आग में झोंको मुझे प्यार से।
आप काहे अकेले गुमसुम हो
लोग अक्सर किताबी कीड़ों की
अर्बन नक्सल की भीड़ों की
बातों का बवंडर न सुनते।

सुनते तो हम यहाँ होते !?
आपके संग्राम कहाँ होते?
सुनते तो आप महान होते !?
यहाँ इकलौती पहचान होते ?

लेकिन जो हैं आज आप हैं!
अर्बन नाज़ी की छाप हैं
मैं पेट्रोल में नंगा नहाया हूँ,
अथवा अंधत्व का साया हूँ
गले में मेरे फन्दा है,
और हाथ में आपके डंडा है

अब भी झूठ क्या बोलूंगा,
जीवन से जी क्या तोलूँगा?

“विश्वविधालय तो बड़ा भ्रम है
स्वस्थ मस्तिष्क का आश्रम है
वकील शकील बनते रहना
क्या साहित्य में घुसे रहना?
क्यों चर्चा ये सब करते हैं!?
लाठी घुसे से डरते हैं?
मेरा तो हुआ है परिवर्तन
पढ़ने लिखने से पूर्ण पतन

अब हेलमेट पहने के घूमूँगा
अश्वत्थामा सा झूमूँगा
संशोधन में परिकाल नहीं
सम्बोधन में परिभाल नहीं
विष भी अमृत- हो भयानक दृश्य
लाठी से लहू बहता परिचय
यहाँ दुर्योधन जीता है रण!
हाँ दुर्योधन देता है शह!!
अब जाता हूँ आज्ञा दे दो
पांडव पुत्रों का वारंट है
पिस्तौल भी, गाली भी दे दो
यहाँ लाठी भर से काम नहीं
मुझसे भी कोई बदनाम नहीं
सदियों ठहरा हूँ नौकरशाह
मेरी अपनी पहचान नहीं, जु़बान नहीं.

आज उठा लो मुझे
मेरे पुस्तकालय से
मैं तैयार हूँ. शत प्रतिशत
मेरी प्रती बहा देना
ये निवेदन है, इसे धमकी बता देना
मैं तैयार हूँ, आखरी विनती पे।

बीस साल की समझ से
किताबों के इनकलाब व
इंसानी कश्मकश से
समझौता कराने मत आना
गांधी के प्रयोग से,
अम्बेडकर के योग से,
कृष्णा की काया से,
चे की छाया से
प्रेमचंद के हरिया से,
टैगोर की चारुलता से,
मनसौदा कराने मत आना

आज उठा लो मुझे
मेरे पुस्तकालय से
लाठी से तरबतर
अवसाद से ऊपर
मेरा भविष्य तैयार है
बर्बाद होने के लिए।

अभय यादव

Syed Farooq Jamal

Syed Farooq Jamal

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